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Bachpan Ki Yaadein | गांव की बचपन की यादें

Bachpan Ki Yaadein: दोस्तों आज के इस लेख में हम गांव की बचपन की यादें आपके लिए लेके आए हैं। इस तरह की गांव की बचपन की यादें आपको और कही नहीं मिलेंगे। उम्मीद करते है की आपको हमारा गांव की बचपन की यादें पसंद आएगा।

Bachpan Ki Yaadein

bachpan ki yaadein

जिस कुएं से पानी भरते थे,
ढह गया होगा,
नदी किनारे जो घरोंदा बनाया था,
बह गया होगा,
मेरे बचपन का गांव बहुत दूर,
रह गया होगा।

खेतों में जाकर चरी काटते,
घर में काटते कुट्टी,
उस दिन तो आफ़त होती थी।

जिंदगी में लालच कितना बढ़ गया,
अब बचपन की यादें याद नहीं आती।

वक्त से पहले ही वो हमसे रूठ गयी है,
बचपन की मासूमियत न जाने कहाँ छूट गयी है।

एक इच्छा है भगवन मुझे सच्चा बना दो,
लौटा दो बचपन मेरा मुझे बच्चा बना दो।

शौक जिन्दगी के अब जरुरतो में ढल गये,
शायद बचपन से निकल हम बड़े हो गये।

जब हम छोटे बच्चे थे,
अकल से थोड़े कच्चे थे,
लेकिन मन से पूरे सच्चे थे,
जैसे भी थे हम बहुत अच्छे थे।

मेरा बचपन मेरे सपनों की तरह ही गुजरा था,
मैं चांद को देखते हुए ही सोता था,
मेरा एक सपना ये भी था।

वक्त से पहले ही वो हमसे रूठ गयी है,
बचपन की मासूमियत न जाने कहाँ छूट गयी है।

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में,
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते।

कितना प्यारा होता है बचपन,
जिसमे खिला रहता हमेशा मन,
खेल-कूद में बीत जाता सारा दिन,
और रातें कट जाती तारें गिन-गिन।

ना कुछ पाने की आशा ना कुछ खोने का डर,
बस अपनी ही धुन बस अपने सपनो का घर,
काश मिल जाए फिर मुझे वो बचपन का पहर।

जिस दिन होती छुट्टी।ले चल मुझे बचपन की उन्हीं वादियों में ए जिन्दगी,
जहाँ न कोई ”जरुरत” थी और न कोई जरुरी था।

पीड़ा से पीड़ित हो जब यह जीवन,
याद कर लेना अपना मधुर बचपन,
बचपन की यादें श्रीऔषधि बनकर,
पीड़ा -मुक्त कर देंगी पीड़ा के क्षण।

मेरे रोने का जिस में क़िस्सा है,
उम्र का बेहतरीन हिस्सा है।

ना कुछ पाने की आशा ना कुछ खोने का डर,
बस अपनी ही धुन, बस अपने सपनो का घर,
काश मिल जाए फिर मुझे वो बचपन का पहर।

ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी,
मगर मुझ को लौटा दो बचपन का सावन,
वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी।

वो बचपन का क्या जमाना था,
ना कोई चिंता, ना कोई फसाना था,
बस यादो का मेला था,
और खेलते रह जाना था।

झूठ बोलते थे फिर भी कितने सच्चे थे हम,
ये उन दिनों की बात है जब बच्चे थे हम।

बचपन की बात ही कुछ और थी,
जब घाव दिल पर नही हाथ-पैरों पर हुआ करते थे।

अब हल्की सी चोट से रो देते हैं वो,
जो बचपन में ऊंचे ऊंचे पेड़ों से
गिरते ही संभल जाते थे।

जब भी मौका मिले बच्चों के साथ,
वक़्त बिताया करों। क्योंकि उनके साथ,
खुद का बचपन भी लौट आता है।

बचपन की कहानी याद नहीं,
बातें वो पुरानी याद नहीं,
माँ के आँचल का इल्म तो है,
पर वो नींद रूहानी याद नहीं।

बचपन में हम रोते-रोते हंस पड़ते थे,
अब हालात ऐसे हैं कि हंसते-हंसते रो पड़ते हैं,
बचपन से लेकर जवानी तक हम ऐसे ही तो सीढ़ियां चढ़ते हैं।

मेरा बचपन भी साथ ले आया,
गाँव से जब भी आ गया कोई।

बचपन के दिन भी कितने अच्छे होते थे,
तब दिल नहीं सिर्फ खिलौने टूटा करते थे,
अब तो एक आंसू भी बर्दाश्त नहीं होता,
और बचपन में जी भरकर रोया करते थे।

आओ भीगे बारिश में,
उस बचपन में खो जाएं,
क्यों आ गए इस डिग्री की दुनिया में,
चलो फिर से कागज़ की कश्ती बनाएं।

काश लौट सकता हमारा बचपन,
जिसमे आसान होता था जीवन,
अब समझदारी की दुनिया में आ गए,
जीवन को और कठिन बना गए।

वो बचपन क्या था, जब हम दो रुपए में जेब भर लिया करते थे,
वो वक़्त ही क्या था, जब हम रोकर दर्द भूल जाया करते थे।

अपना बचपन भी बड़ा कमाल का हुआ करता था,
ना कल की फ़िक्र ना आज का ठिकाना हुआ करता था।

जिंदगी फिर कभी न मुस्कुराई बचपन की तरह,
मैंने मिट्टी भी जमा की खिलोने भी लेकर देखे।

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में,
फिर लौट के “बचपन” के ज़माने नहीं आते।

कुछ अपनी हरकतों से,
तो कुछ अपनी मासूमियत से,
उनको सताया था मैंने,
कुछ वृद्धों और कुछ वयस्कों को,
इस तरह उनके बचपन से मिलाया था मैंने।

कोन गोंड़ते, मेड़ बांधते,
लाते नहर का पानी।
घर आकर के फिर करते थे,
ढोरों की पानी सानी।

क्या खाना है, कहाँ जाना है,
किसी को पता नही था,
जहाँ दोस्त चल दिये, वही चलते जाना था,
वो बचपन का क्या जमाना था।

ईमान बेचकर बेईमानी खरीद ली,
बचपन बेचकर जवानी खरीद ली,
न वक़्त, न खुशी, न सुकून,
सोचता हूँ ये कैसी जिन्दगानी खरीद ली।

फ़रिश्ते आ कर उन के जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं,
वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं।

नहीं चाहिए मुझे शहर के वाटर पार्क,
और न उनके बनावटी झूले,
आज चाहिए वह गांव के आम का पेड़,
जो हमें पुकारे,
अपनी डाल ऊँची करे औ’ बोले आ छू ले।

कितनी ”आसान” थी बचपन के वो दिन, जहां,
सिर्फ दो अंगुलियां जुड़ाने से दोस्ती हो जाया करती थी।

बचपन में हर कोई इसलिए खुश होता है,
क्योंकि माँ ही बच्चे की पूरी दुनिया होती है,
जिंदगी बड़े ही अजीब तरह से बदल जाती है,
जब उसी बच्चे के लिए इस दुनिया में एक माँ होती है।

कितने खुबसूरत हुआ करते थे,
बचपन के वो दिन,
सिर्फ दो उंगलिया जुड़ने से,
दोस्ती फिर से शुरु हो जाया करती थी।

बचपन के दिन भी कितने अच्छे होते थे,
तब दिल नहीं सिर्फ खिलौने टूटा करते थे,
अब तो एक आंसू भी बर्दाश्त नहीं होता,
और बचपन में जी भरकर रोया करते थे।

बचपन भी कमाल का था,
खेलते खेलते चाहें छत पर सोयें,
या ज़मीन पर आँख बिस्तर पर ही खुलती थी।

बचपन को कौन है भूलना चाहता,
क्यूंकि हर किसी को यह बहुत भाता,
याद आते है वो खट्टे-मीठे पल,
जब जीया करते थे बिना अल-छल।

देर तक हँसता रहा उन पर हमारा बचपना,
जब तजुर्बे आए थे संजीदा बनाने के लिए।

होली पर रंग लगाते थे,
दिवाली पर दीप जलाते थे,
अब तो ये त्यौहार हमें सताते हैं,
बचपन के दिन याद दिलाते हैं।

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में,
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते।

आशियाने जलाये जाते हैं जब तन्हाई की आग से,
तो बचपन के घरौंदो की वो मिट्टी याद आती है,
याद होती जाती है जवां बारिश के मौसम में तो,
बचपन की वो कागज की नाव याद आती है।

चलो के आज बचपन का कोई खेल खेलें,
बडी मुद्दत हुई बेवजाह हँसकर नही देखा।

असीर-ए-पंजा-ए-अहद-ए-शबाब कर के मुझे,
कहाँ गया मेरा बचपन ख़राब कर के मुझे।

चकाचौंध के शहरी समंदर में,
मैं ऐसा बह गया,
पालक झपकते ही देखा पंकज ने गांव,
दूर कहीं, किसी किनारे पर रह गया।

मै उसको छोड़ न पाया बुरी लतों की तरह,
वो मेरे साथ है बचपन की आदतों की तरह।

इतना सहज नहीं था अपना,
बचपन का वो दौर,
आज के जैसा वक्त नहीं था,
वो वक्त था कुछ और।

काग़ज़ की कश्ती थी पानी का किनारा था,
खेलने की मस्ती थी ये दिल अवारा था,
कहाँ आ गए इस समझदारी के दलदल में,
वो नादान बचपन भी कितना प्यारा था।

कोई मुझको लौटा दे वो बचपन का सावन,
वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी।

अब तो खुशियाँ हैं इतनी बड़ी,
चाँद पर जाकर भी ख़ुशी नहीं,
एक मुराद हुई पूरी कि दूसरी आ गयी,
कैसे हो खुश हम कोई बता दो,
अब तो बस दुःख भी हैं इतने बड़े,
कि हर बात पर दिल टुटा करता है।

फ़िजूल की बातों पर खूब जोर से हँसना,
स्कूल जाने के नाम पर बुखार का चढ़ना,
बड़ा ही याद आता है वो धुँधला धुँधला सा दिन,
कहाँ गया मुझे अकेला छोड़कर मेरा बचपना।

न कुछ पाने की इच्छा, न कुछ खोने का डर,
इस भागदौड़ भरी जिंदगी के बदले,
काश दोबारा मिल जाए बचपन का पहर।

आज अचानक वो कॉपियां याद आईं,
जिनके पन्ने फाड़कर हम जहाज़ बनाया करते थे,
उन्हीं के सहारे फिर कभी पानी में तैरते,
तो कभी आसमान में उड़ जाया करते थे।

मातृभूमि को छोड़ने पर मजबूर हो गए,
कामयाबी की माध में इतना चूर हो गए,
देखो न,
अपनी गांव की मिट्टी से कितना दूर हो गए।

शौक जिन्दगी के अब जरुरतो में ढल गये,
शायद बचपन से निकल हम बड़े हो गये।

खेला करते थे कूदा करते थे,
मौज-मस्ती में जीया करते थे,
वो मासूम बचपन ही था जहां,
सभी से दोस्ती कर लिया करते थे।

बचपन में जहाँ चाहा हँस लेते थे,
जहाँ चाहा रो लेते थे और अब,
मुश्कान को तमीज चाहिए,
और ”आंसुओं” को तन्हाई।

जब दिल ये आवारा था,
खेलने की मस्ती थी,
नदी का किनारा था,
कगज की कश्ती थी,
ना कुछ खोने का डर था,
ना कुछ पाने की आशा थी।

बात है उन दिनों की जब हम बच्चे थे,
बोलते थे झूठ लेकिन लगते सच्चे थे,
सब कहते थे हम बहुत अच्छे थे,
असल में तो हम अकल के कच्चे थे।

बचपन में किसी पर भी भरोसा कर लेते थे,
छोटी-छोटी बातों के लिए लड़ लेते थे,
अब तो न किसी पर भरोसा होता है,
और न ही किसी से लड़ना होता है।

वो दिन थे बेहद खास,
जब मम्मी पापा होते थे पास,
अब तो जिंदगी से है बस यही आस,
दोबारा बचपन लौट आए मेरे पास।

एक हाथी एक,
राजा एक रानी के बग़ैर,
नींद बच्चों को नहीं,
आती कहानी के बग़ैर।

मा का प्यार, पिता का दुलार,
पाने का कई बहाना था,
थोडा सा रुठो तो, मा का मनाना था,
कोई भी जिद हो, तुरंत पूरी होती थी।

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उम्मीद करते है की, आपको यह हमारा भीमराव अंबेडकर के अनमोल वचन आपको जरूर पसंद आया होगा। आप हमारा यह लेख अपने मित्रो के साथ साझा कर सकते है।